सवा शायरी
पिछले कुछ दिनों से एक नया चस्का लगा है- पहुँचे हुए शायरों के पहुँचे हुए शेर पढ़ना, और उसी रौ में शेर की (बे)तुकबंदी करता हुआ अपना एक अदना सा शेर जड़ देना. तुर्रा ये कि नाचीज़ ने इस ‘विधा’ का बाक़ायादा नामकरण भी कर दिया है; ढिठाई की सारी मिसालों को नीचा दिखाता हुआ नाम- ‘सवा शेर’.
तो साहेबान पेश-ए-ख़िदमत हैं ऐसे कुछ सवा शेर. जिनके शेरों की हजामत बनाई गई है उन शायरों से माफ़ी मांगना तो उनकी ठंडी आहों को क्या ही गर्म करेगा, पर शऊर भी कोई चीज़ होती है, है न? तो जैसे कि मुज़फ्फ़र वारसी इस शेर में ग़ालिब से क्षमा-याचना करते हैं, मेरी भी गुस्ताख़ी माफ़ कीजिएगा.
“ग़ालिब तेरी ज़मीन में लिखी तो है ग़ज़ल,
तेरे क़द-ए-सुख़न के बराबर नहीं हूँ मैं”
(ज़मीन~style; क़द-ए-सुख़न~level of eloquence)
सवा शेर दाहिनी तरफ़ हैं-
“एक दिन तुझसे मिलने ज़रूर आऊँगा,
ज़िंदगी मुझको तेरा पता चाहिए”- बशीर बद्र
“शहर यही है शायद, मोहल्ला, गली भी,
यहीं- कहीं घर है तेरा, रास्ता चाहिए”
“वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया”- वसीम बरेलवी
“कनखियों से जो देखा था मुड़कर मुझे,
रात भर फिर सड़क पर खड़ा रह गया”
“इक तुम ही नहीं तन्हा, उल्फ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं”- शहरयार
(उल्फ़त~intense love)
“बस इतनी गुज़ारिश है, तू तो न इम्तिहां ले
यूँ भी तो ज़िंदगी में पैमाने हजारों हैं”
“नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है”- मुनव्वर राना
“उठी रहती हैं पलकें इस क़दर उस राह को तकते
ख़फ़ा होकर के इस आलम से पुतली बैठ जाती है”
“ये इनायतें ग़ज़ब की, ये बला की मेहरबानी
मेरी ख़ैरियत भी पूछी किसी और की ज़ुबानी”- नज़ीर बनारसी
(इनायतें~benignity)
“तेरी आवाज़ का था सुनना, और मेरा ग़श खाके गिरना
तू जो गुनगुना रही थी मेरी वो ग़ज़ल पुरानी”
“हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ”- क़तील शिफ़ाई
(शब~night)
“सुबह से दौड़-धूप और शोरोगुल में जो दबे से थे
अब उन दर्दों की बारी है सितारों तुम तो सो जाओ”
“ये हक़ीक़त है कि होता है असर बातों में
तुम भी खुल जाओगे दो-चार मुलाक़ातों में”- सईद राही
“माना के तू है संगदिल पर मैं भी कम नहीं
शिद्दत अभी बहुत है इस दिल के जज़्बातों में”
(संगदिल~heartless; शिद्दत~passion)
“ये आधी रात को फिर चूड़ियाँ सी क्या खनकती हैं
कोई आता है या मेरी ही ज़ंजीरें छनकती हैं”- प्रेम वरबर्तोंनी
“मेरा दिल उल्फ़तों और वहशतों का क़ैदख़ाना है
जहाँ साँसें क़यामत की परस्तिश में सिसकती हैं”
(वहशत~insanity; परस्तिश~servitude)
“चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले”- अमजद इस्लाम अमजद
“घर तेरा था तो चंद क़दमों की दूरी पर
मिलने निकले तुझे तो कितने ज़माने निकले”
nice collection………..
getashu
नवम्बर 20, 2010 at 11:31 पूर्वाह्न
Nice ones.. couple of them are really good, for example the last one!
Shubhchintak
नवम्बर 25, 2010 at 7:36 अपराह्न
मित्रवर ! यह जान कर अपार प्रसन्नता हुई कि आप हिंदी भाषा के उद्धार के लिए तत्पर हैं | आप को मेरी ढेरों शुभकामनाएं | मैं ख़ुद भी थोड़ी बहुत कविताएँ लिख लेता हूँ | आप मेरी कविताएँ यहाँ पर पढ़ सकते हैं- http://souravroy.com/poems/
आपके बारे में और भी जाने की इच्छा हुई | कभी फुर्सत में संपर्क कीजियेगा…
Sourav Roy
दिसम्बर 5, 2010 at 12:14 पूर्वाह्न
बहुत धन्यवाद.
SatyaVrat
दिसम्बर 7, 2010 at 4:36 पूर्वाह्न